कहानी मेरी है,
तू चलती नहीं कहे मेरे,
तुझे मैं लिखूंगी चाहे कुछ हो जाए,
याद है कलम तोड़ी थी आखिरी बार जब थक हार,
बिना दिल अच्छा लग रहा था,
मुस्कुरा उठी थी खुल कर तब,
मुझे नहीं किसी बंधन में बंधना था,
फिर क्यू अचानक,
बारिश में भीग जब मैं भी जी उठी थी,
खिल उठी थी,
वो कली,
जो दफ़न हो चुकी थी गहरी मिटी में कन्ही,
ये कैसी जी उठी,
ये बारिश मेरे लिए नहीं है,
तो कैसे भीग जाउ,
ये कैसे भूल जाऊ,
बस जुड़ते ही बारिश आ गई फिर तोडने,
अब क्यू बताया ये कैसे होता है,
जब मुझे जान ही नहीं थी,
अब पूछती कलम ह,
अब कन्हा की हो,
कन्हा जाउ,
मैं अब क्या लिखु आगे,
मैं टूट नहीं सकती,
बहुत काम है,
ऐसे कैसे टूट जाऊ,
बस मुझे डूबना नहीं है,
मुझे ये कलम संभालनी है फिर से,
मुझे मेरी कहानी खुद लिखनी है,
साथ नी ह तो क्या हुआ,
उसकी मुस्कुराहट तो ह कान्ही,
पर ये शिकायत रहेगी सदा,
क्यू ना ये कहानी,
एक नज़म होती,
जो लिखु वो हो जाता,
इसे मेरे हिसाब से चलना होगा,
ना तू यूं डगमगा!!
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